
औद्योगिक जनसुनवाईयों में समर्थन जुटाने के लिए संबंधित उद्योग समूह द्वारा व्यापक अभियान चलाया जाता है, जिसमें तमाम राजनैतिक दलों के बॉटम टू टॉप नेता, सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाले एनजीओ, बाहुबल के लिहाज़ से अच्छा ख़ासा रसूख़ वाले युवाओं की टोलियों, प्रभावित गांव के अलग अलग समूहों के अलावा स्थानीय और क्षेत्रीय मीडिया को उपकृत किया जाता है। जनसुनवाईयों के दौरान अंदरखाने सेटिंग की ये परंपरा बीसों साल से चली आ रही है। जिंदल स्टील एंड पावर की गारे पेलमा 4/6 कोल माईन्स के लिए 2013 ऐसी ही एक जनसुनवाई भारी समर्थन के साथ संपन्न हुई थी। इस जनसुनवाई के लिए भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन प्रदेशाध्यक्ष की हैसियत से लैलूंगा के पूर्व विधायक और आज महाजेंको की गारे पेलमा 2 कोयला खनन परियोजना के लिए विरोध कर रहे दमदार आदिवासी नेता सत्यानंद राठिया ने लिखित में समर्थन दिया था, ऐसा ही लिखित समर्थन पत्र अविभाजित मध्यप्रदेश से लेकर पृथक् छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार में केबिनेट मंत्री रहे वरिष्ठ कांग्रेसी रायगढ़ के पूर्व विधायक कृष्णकुमार गुप्ता ने भी दिया था। आज महाजेंको गारे पेलमा 2 कोयला खनन परियोजना के लिए विपक्षी दल कांग्रेस और सत्तापक्ष भारतीय जनता पार्टी के सत्यानंद राठिया जैसे लोग एमडीओ अडानी द्वारा बेरहमी से काटे जा रहे जंगल पर लगाम लगाने के लिए ना केवल आंदोलनरत हैं बल्कि गिरफ़्तारी भी दे चुके हैं।


अब ऐसे नेताओं से ये सवाल करना तो बनता है न कि समर्थन और विरोध के लिए ऐसा दोहरा मापदंड क्यों भाई? आख़िर किसको निरा बेवक़ूफ समझ रहे हो? अगर ऐसा दोहरा मापदंड है भी तो कोई बात नहीं, समाज में आप जैसे बहुत लोग हैं जो अच्छे से सरवाईव कर रहे हैं, लेकिन दिक़्कत तब बड़ी हो जाती है जब भोले भाले आदिवासियों ग्रामीणों के अस्तित्व बचाने के संघर्ष में पर्दे के पीछे से छल होने लगता है। कम से कम राजनैतिक दल से जुड़े नेताओं जनप्रतिनिधियों को तो ऐसे मामलों में दोहरे मापदंड अपनाने से बचना चाहिए, हालांकि जनता जो है न, वो अच्छे से जानती है कि कौन कितने पानी में है?