रायगढ़ के औद्योगिक विकास की नींव दशकों पहले कोलकाता के जालान परिवार द्वारा जूटमिल की स्थापना के साथ रखी जा चुकी थी, अविभाजित मध्यप्रदेश के दौर में रायगढ़ की जूटमिल को एकमात्र होने का गौरव हासिल था। जूट उद्योग से जुड़े इस कारखाने में तत्कालीन अविभाजित बिहार प्रांत के हज़ारों मज़दूर नौकरी करने आये थे, जो कि रायगढ़ के स्थायी निवासी के तौर पर बस गये हैं। एक समय के बाद जब रायगढ़ की जूटमिल में कामगारों के साथ छल किया जाने लगा, तभी से इस कारखाने का डाऊनफ़ाल यानि उल्टी गिनती शुरू हो गई थी। वक़्त बीतता गया और अब हालात ये हैं कि पूरी मोहन जूटमिल धनकुबेरों के सिंडीकेट के हाथों बिक चुकी है, ख़बर है कि जिस सिंडीकेट ने इस बंद पड़े उद्योग को ख़रीदा है, लेबर कालोनी में पचासों साल से रह रहे मज़दूर परिवारों को बेदखल करने की तैयारी में है। किसी ज़माने में मिनी बिहार के नाम से पहचाने जाने वाले जूटमिल क्षेत्र में बिहारियों का एकछत्र राज रहा है, आज जब लेबर कालोनी को धनबल और बाहुबल के दम पर ख़ाली करवाने का खेल हो रहा है, तो जूटमिल क्षेत्र के कुछ लोगों को शामिल किये बग़ैर ये संभव नहीं है।
अब यहां लाख टके का सवाल ये है कि अपने हक़ अधिकार के लिए जूटमिल प्रबंधन से लड़ाई लड़ने वाले मज़दूर परिवारों के समर्थन में कोई खुलकर सामने क्यों नहीं आ रहा है और कौन हैं वो तमाम लोग, जो पचास-पचास, साठ-साठ साल से निवास कर रहे मज़दूरों को बेदखल करवाने के लिए सुपारी उठाकर पर्दे के पीछे से काम कर रहे हैं, बाबू लाईन को तो लगभग ख़ाली करवा ही चुके हैं। जो खांटी बिहारी बाबू होते हैं, वो कभी अपने ही बिहारी भाई बंधुओं के हितों को धनकुबेरों की ड्योढ़ी पर गिरवी रखने का सौदा ऐसे तो नहीं करता। ये अच्छी बात नहीं है….जो लोग जूटमिल के मज़दूर परिवारों के दम पर अपनी राजनीति चमकाते आये हैं, शहर में अपनी धाक जमाते आये हैं, उनको अब मज़दूर परिवारों के पक्ष में खुलकर मोर्चा संभाल लेना चाहिए।